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अध्याय 42 - आलोचना और प्रभाव

मसीहियों को अपने शब्दों में बहुत सावधान रहना चाहिए.उनको कभी अहित समाचार एक मित्र से दूसरे तक नहीं पहुंचाना चाहिए विशेषकर यदि उनके आपसी प्रेम में कमी पड़ने का अन्देशा हो.यह निरी दुष्टता है जब आप एक मित्र या जान पहचान वाले के विषय में ऐसा बोलें कि आप उनके विषय में अधिक जानते हैं जब कि दूसरे व्यक्ति नहीं जानते हैं.इस प्रकार के संकेत गलत विचार और धारणाये में उत्पन्न करते हैं अपेक्षाकृत उसके कि तथ्य स्पष्ट रूप से और बिना बढ़ाये कह दिये जाएं. मसीह की कलीसिया का इस से अधिक कभी भी कितना नुकसान नहीं पहुंचा.उसके सदस्यों की असावधानी और असुरक्षित ने उसे पानी की तरह निर्बल बना दिया.किसी मण्डली का उसी के सदस्यों द्वारा विश्वासघात किया गया किन्तु फिर भी अपराधी की नियत हानि पहुंचाने की नहीं थी. वार्तालाप के विषयों के चुनाव में बुद्धि की हीनता के कारण बड़ी हानि पहुंची है. ककेप 232.1

वार्तालाप आत्मिक और ईश्वरीय बातों से सम्बंधित होना चाहिये परन्तु उसके विरुद्ध होता है.यदि मसीही मित्रों के आपसी सम्बन्ध विशेषकर मस्तिष्क और हृदय की उन्नति के लिये अर्पण किये जायें तो कोई पछतावा न होगा, परन्तु अन्त में पूर्ण सन्तोष की भावना से हम इस मुलाकात पर दृष्टि कर सकेंगे.परन्तु यदि घन्टे व्यर्थ की बातचीत में बिताये जायें और यह अमूल्य समय दूसरों के चरित्र और जीवन पर आलोचना करने में बिताया जाय तो यह मित्रता बुराई की जड़ सिद्ध होगी और आपका प्रभाव मृत्यु के लिये दुर्गन्ध सा ठहरेगा. ककेप 232.2