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अध्याय 46 - मसीही शिक्षा

हम शीघ्रता से इस दुनिया के इतिहास की अंतिम सूक्ष्म घड़ी के निकट पहुंच रहे हैं तो यह बात महत्वपूर्ण है कि हम समझें कि हमारे स्कूलों द्वारा दिये गये शिक्षा संम्बधी अवसरों को सांसारिक स्कूलों द्वारा दिये गये अवसरों से भिन्न होना चाहिये.  ककेप 260.1

शिक्षा के प्रति हमारे विचार बहुत ही क्षुद्र तथा संकीर्ण हैं.इस और एक विस्तृत दृष्टिकोण तथा उच्च लक्ष्य की आवश्यकता है.वास्तविक शिक्षा का अर्थ एक विशेष पद्धति के अनुकरण से कहीं अधिक है.इसका अर्थ वर्तमान जीवन की तैयारी से भी अधिक है.इसका सम्बध सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं सम्पूर्ण जीवन से है.इसका सम्बंध शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के समतुल विकास से है.यह शिक्षार्थी को इस दुनिया में और आने वाली दुनिया में विस्तृत रूप से आनंद के साथ सेवा करने के लिये तैयार करती है.  ककेप 260.2

यथार्थ में शिक्षा और त्राण का कार्य एक ही है;क्योंकि शिक्षा के कार्य में त्राण के कार्य की भाँति जो नेव पड़ी है अर्थात् यीशु सृष्टि उसे छोड़ के दूसरी नैवकोई नहीं डाल सकता.”  ककेप 260.3

जीवन की सारी शिक्षा तथा अनुशासन का उच्च अभिप्राय यह है कि परमेश्वर की संगत में आकर मनुष्य की नैतिक प्रकृति का उत्थान हो जिससे वह अपने सृजनहार के रूप का पुन:प्रतिबिंबित कर सकें.यह कार्य त्राणकर्ता की दृष्टि में ऐसा महत्वपूर्ण थी कि उसको स्वर्ग के सिंहासन का परित्याग करना पड़ा और स्वयं इस पृथ्वी में आया कि मानव को आदर्श जीवन के योग्य बनना सिखलावे.  ककेप 260.4

सांसारिक योजनाओं, रीति रिवाजों तथा दस्तूरों में फंस जाना अति सरल है और नूह के युग के लोगों की भांति इन गम्भीर दिनों का जिनमें हम रहते हैं तथा उस विशाल कार्य को पूरा करने का हम तनिक भी ख्याल न करें.निरन्तर खतरा लगा हुआ है कि हमारे शिक्षकगण भी यहूदियों की भांति वही भूल करें और उन प्रथाओं,व्यवहारों तथा परंपरागतों का अनुकरण करें जिनको परमेश्वर ने नहीं दिया है.कुछ लोग दृढ़ता के साथ पुरानी आदतों को पकड़े रहते हैं और भांति भांति के अनावश्यक अध्ययनों से प्रीति रखते हैं मानों कि उन्हीं पर उनके त्राण का आधार है,ऐसा करने में वे उन्हें परमेश्वर के विशेष कार्य से दूर रखते हैं और शिक्षार्थियों को अपूर्ण कथा गलत शिक्षा देते हैं. ककेप 260.5

ऐसे स्त्री पुरुष होने चाहिये जो मंडलियों में काम करने के तथा युवकों को विशेष काम के लिये शिक्षण देने के योग्य हों जिसके द्वारा आत्मायें यीशु को जान सकें.हमारे द्वारा स्थापित पाठशालाओं का ध्येय यही हो,उनको दूसरी मंडली द्वारा स्थापित पाठशालाओं तथा सांसारिक सेमिनेरी तथा कालेजों के ढंग पर न होना चाहिये.इनको सर्वथा ऐसी उच्चकोटि का होना चाहिये जहां नास्तिकता के लेशमात्र की भी उत्पत्ति न हो और न उसका समर्थन ही किया जाय.विद्यार्थियों को व्यावहारिक मसीही धर्म की शिक्षा दी जाय और बाइबल का सर्वश्रेष्ट सम्मान हो और उसको महत्वपूर्ण पाठय पुस्तक स्वरुप ग्रहण किया जाय. ककेप 260.6